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कर्मयोग
 

हैं, हमारे चारों ओर उतने ही अधिक बन्धन पड़ते हैं, दुख उतना ही बढ़ जाता है। इसलिये कर्मयोग कहता है, संसार के सभी चित्रों को देखो और सराहो, परन्तु किसी में आसक्त न हो। कभी न कहो, "यह मेरा है। जहाँ किमी वस्तु को तुमने अपनी कहा कि दुख का आरंभ हुआ, "मेरा बच्चा" मन में यह भी न कहो। बच्चे को पास रक्खो परन्तु अपना न कहो। यदि कहोगे तो दुख होगा। "मेरा घर" "मेरा शरीर-ऐसा मत कहो। सारी कठिनता यहीं पर है। शरीर न मेरा है, न तुम्हारा, न अन्य किसी का, ये शरीर प्रकृति के नियमों के अनुसार आते-जाते हैं परन्तु हम साक्षी-रूप मुक्त हैं। यह शरीर उतना ही स्वतंत्र है, जैसे एक दीवाल, एक चित्र, अधिक नहीं। तब हमारी शरीर पर इतनी आसक्ति क्यों हो? उसे जाने दो। स्वार्थ की मरीचिका की ओर, "वह मेरा है"- कहकर न दौड़ो। ऐसा सोचना हो दुखी होने का सामान करना है।

इसलिये कर्मयोग कहता है, पहले इस स्वार्थ-मरीचिका को जन्म देने की मानसी प्रवृत्ति को रोको और जब तुम उसे रोक सको तब मन को फिर उस स्वार्थ को लहर में न तरंगित होने दो। संसार में जाकर तब तुम जितना भी कर्म चाहो, कर सकते हो। सबसे मिलो, चाहे जहाँ जाओ; तुम पाप से निर्लिप्त रहोगे, उसकी कालिमा तुम्हें स्पर्श न कर सकेगी। जैसे कमल-दल पानी में रहता हुआ भी उससे अलग रहता