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कर्मयोग
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हैं, वह हमारे संसार में होता है, और जो कुछ भी हमारे संसार में है वह देश, काल और निमित्त के अनुसार बना है। हम जो कुछ भी जानते हैं अथवा जान सकेंगे, वह कार्य-कारण- नियम से नियमित होगा तथा उस भाँति नियमित कोई भी वस्तु स्वतंत्र नहीं हो सकती । वह अन्य कर्मों का फल होती है तथा अवसर पर स्वयं कारण बन जाती है । परंतु वह जो पहले इच्छा न था परंतु देश, काल और निमित्त के ढाँचे में पड़कर मानवीय इच्छा में परिवर्तित हो गया, वह स्वतंत्र है। वह स्वतंत्रता से आता है, इस परतंत्रता की दशा में पड़ जाता है और एक बार वह पुनः मुक्त हो जाता है।

लोग पूछते हैं, यह सृष्टि किसने उत्पन्न की, वह किसमें स्थित है तथा अन्त में किसमें लय होती है। इनका उत्तर यही है, स्वतंत्रता से उसकी उत्पत्ति होती है, परतंत्रता में स्थिति होती है तथा स्वतंत्रता में ही वह लय होती है । अतः जब मनुष्य के लिये इम कहते हैं कि वह उस अनंत सत्ता से भिन्न नहीं जो उसमें स्पप्ट होती है तब हमारा अर्थ यह होता है कि उस सत्ता का एक अत्यन्त लघु भाग मनुष्य है ; ये शरीर और मन जिन्हें हम देखते हैं उस पूर्ण के एक क्षुद्र अंश-मात्र हैं, उस अनंत सत्ता पर बिंदु के समान। यह समस्त सृष्टि भी उस अनंत के एक लघुतम परमाणु के समान है ; हमारे धर्माधर्म, हमारे बंधन, हमारे सुख- दुख, आशा-निराशायें,-सब इसी क्षुद्र विश्व में सीमित हैं; उसी के छोटे-से वृत्त में हमारी उन्नति और अवनति का क्रम जारी