मनोवैज्ञानिकों के अनुसार देश, काल और निमित्त से बना है, जिन्हें पाश्चात्य मनोविज्ञान में Space, Time और Causation कहते हैं। अनन्त सत्ता का यह विश्व एक क्षुद्र भाग मात्र है ; एक भाग जो किसी विशेप ढाँचे में ढाला गया है, अथवा देश, काल और निमित्त से बना है । इस ढाँचे में सत्ता का जो भाग ढला है, वही हमारा विश्व है। इसलिये परिणाम यही निकलता है कि धर्म इस विशेष स्थिति की सृष्टि में ही संभव है। उसके परे कोई धर्म नहीं हो सकता। जब हम इस सृष्टि की चर्चा करते हैं तो हमारा तात्पर्य सत्ता के उस भाग से होता है जो हमारे मन से सीमित है, यही गोचर विश्व, जिसे हम देख- सुन, छू अथवा सोच सकते हैं। यह गोचर संसार ही नियमित है; उसके परे सत्ता पर कोई धर्म लागू नहीं हो सकता, क्योंकि वहाँ कार्य-कारण का संबंध नहीं। हमारे मन और इंद्रियों के परे जो भी है, वह कार्य-कारण के बंधन से बँधा नहीं रह सकता ; अगोचर भूमि में वस्तुओं का कोई अन्योन्याश्रित संबन्ध नहीं, बिना विचारों के पारस्परिक संबन्ध के कार्य-कारण-धर्म भी संभव नहीं। जब सत्ता नाम और रूप के ढाँचे में ढल जाती है तभी कार्य-कारण-धर्म उसके लिये मान्य होता है और वह नियमों के बंधन में बंधती है ; क्योंकि सभी धर्मों का मूल यही कार्य- कारण का नियम है। इसलिये हम देख सकते हैं कि स्वतंत्र इच्छा संभव नहीं ! उन दोनों शब्दों में ही पारस्परिक विरोध है, क्योंकि इच्छा वह है जिसे हम जानते हैं और जो कुछ भी हम
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कर्मयोग
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