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कर्मयोग
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छोटे आदमियों में भी बड़प्पन आ सकता है; सचमुच बड़ा तो वही है जिसका चरित्र सदा बड़ा है, वह जैसा जहाँ भी हो।

चरित्र-निर्माण में कर्म ही सबसे बड़ी शक्ति है जिसका मनुष्य को सामना करना पड़ता है। मनुष्य एक केन्द्र-विन्दु की भाँति है और वह विश्व की तमाम शक्तियों को अपनी ओर खींचता है; इस केन्द्र में वह उन्हें मिलाता है और फिर एक विशाल धारा में उन्हें प्रवाहित कर देता है। ऐसा केन्द्र-विन्दु वह "वास्तविक" मनुष्य है, सर्वज्ञ और सर्व-शक्तिमान्, जो तमाम सृष्टि को अपनी ओर खींच लेता है; पाप-पुण्य, सुख-दुख सभी उसकी ओर आकर्षित, उससे जाकर लिपट जाते हैं; उनमें से वह उस मनोवृत्तियों की विद्युत्-धारा का निर्माण करता है जिसका नाम चरित्र है और उसे बाहर को फेंकता है। जिस प्रकार बाहर की चीजें अपनी ओर खींचने की उसमें शक्ति है उसी प्रकार कार्य-रूप में परिणत होने के लिये उन्हें बाहर फेंकने की भी।

संसार में जितने भी काम हम देखते हैं, मनुष्य-समाज के सभी आंदोलन, जितने काम हमारे चारों ओर होते हैं, वे सब विचार का चमत्कार, मनुष्य को मनःशक्ति का प्रकटीकरण-मात्र हैं। यंत्र, कल-पुर्जे, नगर, जहाज सव कुछ उस मनःशक्ति का स्पष्टीकरण है। और इस शक्ति के मूल में चरित्र होता है और चरित्र के मूल में कर्म। जैसा कर्म होता है वैसे ही मनःशक्ति स्पष्ट होती है। वे अनेक महती मनःशक्तिवाले पुरुष, जिन्हें संसार ने जन्म