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बना हुआ समझने लगता है; पर वैसी बात होती नहीं है। अतः आत्मा के निश्चय को हम ऐसी असार वस्तु के आधार पर जैसी प्रत्यभिज्ञा है, कभी मान नहीं सकते। इस प्रकार हम देखते हैं कि आत्मा के परिमित और फिर पूर्ण और सतत निश्चित होने की बात गुणों से पृथक् नहीं मानी जा सकती। हम ऐसी संकुचित और परिमित सत्ता को जिसमें गुणों का समूह लगा हो, सिद्ध ही नहीं कर सकते।

इसके विरुद्ध प्राचीन बौद्धों की युक्तियाँ कहीं प्रबल जान पड़ती हैं―यह कि हम न तो जानते हैं और न जान ही सकते हैं कि कोई पदार्थ गुण-समुदाय से पृथक् है। उनके मतानुसार आत्मा गुणों का एक समुदाय विशेष है, अर्थात् चित्त और चैतसिक मात्र का। इन्हीं के समुदाय का नाम आत्मा वा जीवात्मा रख लिया गया है और यह समुदाय नित्य विकारी है।

अद्वैत सिद्धांत से आत्मा के संबंध में इन दोनों पक्षों के झगड़े का निबटेरा हो जाता है। अद्वैत का पक्ष यह है कि यह ठीक है कि हम गुण से पृथक् द्रव्य का ध्यान नहीं कर सकते। हम विकार और निर्विकार दोनों का एक साथ चिंतन नहीं कर सकते। ऐसा होना असंभव है। पर वही पदार्थ जिसे द्रव्य कहते हैं, गुण है। द्रव्य और गुण दो पृथक् पदार्थ नहीं हैं। यह निर्विकार ही है जो हमें विकारी दिखाई पड़ता है। विश्व का निर्विकार पदार्थ विश्व से पृथक् नहीं है। निर्विकार विकार से भिन्न नहीं है; पर यह निर्विकार ही है