यह तो बतलाइए कि तर्क से अधिक और कौन व्यापक हो सकता है? यह कहा जाता है कि तर्क पूर्ण प्रबल नहीं है; उससे कभी कभी सत्य का ज्ञान नहीं होता; कभी कभी वह भूल कर जाता है। अतः प्रतिफल यह निकलता है कि हम ईसाई धर्म की बातों को मानें। यह बात मुझसे एक रोमन कैथलिक ने कही थी, पर मुझे तो इस तर्क का कुछ पता ही नहीं चला। मैं तो इस पर यह कहता हूँ कि यदि तर्क इतना निर्बल है, तो पुजा- रियों का समूह उससे कहीं निर्बल है; और मैं तो उनकी व्यवस्था को कभी मानने को तैयार नहीं हूँ। हाँ तर्क को मैं भले ही मानूँगा; क्योंकि उसमें निर्बलता भले ही हो, तो भी उसके द्वारा सत्य का ज्ञान होने की कुछ तो संभावना है। और दूसरे से तो उसकी कुछ आशा ही नहीं है।
अतः हमें तर्क का अनुगामी होना चाहिए और उन लोगों पर अनुकंपा करनी चाहिए जो तर्क का आश्रय लेकर किसी प्रकार के निश्चय पर नहीं पहुँच सके हैं। यह अच्छा है कि मनुष्य तर्क और युक्ति का अनुगामी होकर नास्तिक हो जाय; पर किसी की बात मानकर दो कोटि देवताओं पर विश्वास करना अच्छा नहीं है। हमें जिस वस्तु की आवश्यकता है, वह आगे बढ़ना, उन्नति करना और साक्षात्कार करना है। किसी सिद्धांत से मनुष्यों की उन्नति कभी नहीं हुई है। कितनी ही पुस्तकें क्यों न हों, उनसे हम पवित्र नहीं हो सकते। यह शक्ति तो केवल एक साक्षात् करने में है और वह हम ही में