पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/७६

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की कुछ भी उपलब्धि नहीं हो सकती। हम इसे जानते हैं कि आचार का प्राचीन भाव था किसी वा कुछ व्यक्ति-विशेष की आज्ञा का पालन होना; पर आजकल इसे बहुत कम लोग मानेंगे। कारण यह है कि यह केवल एकदेशी सामान्यवाद है। हिंदू कहते हैं कि हम यह या वह न करेंगे क्योंकि वेदों में तो ऐसा लिखा है; पर ईसाई अलग मानने को उद्यत नहीं हैं; क्योंकि इंजील में कुछ और है। उसे तो वे ही लोग मान सकते हैं जो इंजील को न मानते हों। पर हमें एक ऐसे सिद्धांत की आव- श्यकता है जो इतना विस्तृत हो कि उसके पेट में सब बातें आ जायँ। जैसे संसार में ऐसे करोड़ों लोग हैं जो पुरुष-विशेष ईश्वर को मानने के लिये उद्यत हैं, वैसे ही सहस्रों ऐसे बुद्धि- मान् भी संसार में हो गए हैं जिन्हें यह सिद्धांत पर्याप्त नहीं जान पड़ा था और जो किसी और उच्च ज्ञान के जिज्ञासु थे। अतः धर्म में इतना अधिक अवकाश नहीं था कि वे बुद्धिमान् लोग उसमें रह सकते। परिणाम यह हुआ है कि उन महात्माओं को समाज में रहते हुए भी धर्म्म से पृथक् रहना पड़ा है। और ऐसी अवस्था तो कहीं कभी न रही होगी जैसी कि आज युरोप में हो रही है।

ऐसे लोगों को अवकाश देने के लिये धर्म को अधिक विस्तृत और व्यापक होना चाहिए। सब धर्मों की बातों की जाँच तर्क की दृष्टि से होने की आवश्यकता है। यह समझ में नहीं आता कि धर्म यह क्यों चिल्ला रहे हैं कि हमारे लिये यह