है; यही कर्मण्यता है। जब हम मुक्त हो गए तो हमें इसकी आवश्यकता नहीं है कि घरबार छोड़ छाड़कर जंगल में भाग जायँ
और वहाँ कंदराओं में पड़े पड़े मरें। जहाँ हम थे, हम वहीं रहें;
इसमें कुछ धरा नहीं है। केवल हमें सारे पदार्थों के रहस्य
जानने से काम है। बातें सब वही रहेंगी, पर उनका भाव नया
हो जायगा। हमें संसार का अब तक ज्ञान नहीं है।
स्वतंत्रता के कारण, स्वतंत्रता के द्वारा हम देखते हैं कि वह क्या
है और उसके स्वरूप को समझते हैं। हमें तब यह सुझाई
पड़ेगा कि जिसे नियम, भवितव्यता, वा भाग्य कहते हैं, वह
हमारे स्वरूप के एक अणु मात्र पर था; यह तो एक अंश में
था और शेष सदा निर्लेप और मुक्तिस्वरूप था। हमें इसका
शान नहीं था। यही कारण था कि हम अपना मुँह शिकार के
खरगोश की भाँति भूमि में छिपाकर अपने बचाने के निमित्त
प्रयत्न करते रहे। भ्रम के कारण हम अपने स्वरूप को भूलने
की चेष्टा कर रहे थे; पर हम ऐसा कर न सके। यह हमें सदा
चैतन्य करता रहा और देवताओं वा ईश्वर वा बाहरी स्वतंत्रता
की खोज में सारी दौड़धूप हमारे वास्तविक स्वरूप ही की खोज
में थी। हमने वाणी को समझा नहीं। हमने सोचा कि वह
अग्नि की, देवता की, सूर्य्य की, चाँद की वा तारों की थी; पर
अंत को हमें यह जान पड़ा कि वह हमारे भीतर से आई थी।
हमारे भी नित्य वाणी है। वह शाश्वत स्वतंत्रता के लिये पुकार
रही है। उसका राग नित्य है; उसके बाजे सदा बजते रहते हैं।
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