उनसे अलग स्वर्ग में रहता है और उससे वे डरते भी बहुत हैं। वे भय से काँपते हुए उत्पन्न हुए हैं और जन्म भर ऐसे ही काँपते उन्हें बीतेगा। क्या इससे संसार की दशा कुछ अच्छी हो गई? उन लोगों में जो पुरुष विशेष ईश्वर की पूजा करते हैं और उन लोगों में जो सर्वदेशी अपौरुषेय ईश्वर की पूजा करते हैं, बतलाइए कि किनमें बड़े बड़े काम करनेवाले इस संसार में उत्पन्न हुए हैं। बड़े बड़े काम करनेवाले, बड़े बड़े साहसी, इसमें संदेह नहीं कि अपौरुषेय ईश्वर के पूजने- वालों ही में हुए हैं। भला भय से कहीं साहस की उन्नति हो सकती है? नीति आ सकती है? यह असंभव है। जहाँ एक दूसरे को देखता है या दूसरे को हानि पहुँँचाता है, वहाँ माया है। जब एक दूसरे को देखता नहीं, जब कोई दूसरे को हानि नहीं पहुँचाता, जब सब आत्मा ही हो गया, तब कौन किसे देखता है, कौन किसे जानता है? सब तो वही हैं। सब मैं ही हूँ। उसमें और मुझमें अंतर क्या? आत्मा तो शुद्ध हो गया। तभी हमें यह समझ में आवेगा कि प्रेम क्या है। प्रेम भय से नहीं हो सकता; इसका आधार तो स्वतंत्रता है। जब हम संसार को सचमुच प्यार करने लगेंगे, तभी हम यह समझेंगे कि सार्वदेशिक ‘भ्रातृत्व’ का अर्थ क्या है। इसके पहले हम उसे जान ही नहीं सकते।
अतः यह कहना ठीक नहीं है कि अपौरुषेयता के विचार से संसार में बड़ी बुराई फैलेगी। मानों अन्य प्रकार के विचारों