पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/५१

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उसका अभिप्राय है कि न पाप है, न पुण्य, न भला, न बुरा। सब आत्मा पर आते जाते रहते हैं। आत्मा सब में है। इसका अर्थ है विश्व का निषेध करना, इससे आँखें मूँँद लेना; और भगवान् को स्वर्ग नरक दोनों में समान देखना। अभी मैं आपको यह वचन सुना चुका हूँ कि पृथ्वी, आकाश सब ब्रह्म ही के प्रतीक, सब ब्रह्म ही हैं। उसे देखना चाहिए, साक्षात् करना चाहिए। केवल कहने और सोचने से ही काम नहीं चलेगा। हम तर्क द्वारा अनुमान कर सकते हैं कि आत्मा जब साक्षात् कर लिया जाता है और सब ब्रह्ममय हो जाता है, तब फिर इसकी चिंता क्या कि कोई स्वर्ग में जाय वा नरक में जाय। कहीं जाय, कहीं जनमे, स्वर्ग में हो वा पृथ्वी में, आत्मा के लिये यह सब निरर्थक है; क्योंकि उसके लिये सब स्थान समान हैं; सब भगवान् का मंदिर हैं; उसके लिये सब पवित्र स्थान हैं। ईश्वर, स्वर्ग, नरक सब जगह समान रूप से उसे दिखाई पड़ता है। उसके लिये न कहीं स्वर्ग है न कहीं नरक; सर्वत्र ब्रह्म ही ब्रह्म रह जाता है, वही सर्वत्र दिखाई पड़ता है।

वेदांत के अनुसार जब कोई इस प्रकार साक्षात् कर लेता है, तब वह मुक्त हो जाता है। ऐसा ही मनुष्य संसार में रहने योग्य है; और लोग इस योग्य नहीं हैं। वह मनुष्य जिसे बुराई ही दिखाई पड़ती है, भला संसार में रह ही कैसे सकता है। उसका जीवन तो आप दुःख का बोझ हो रहा है। जिसे भय दिखाई पड़ता है, उसका जीवन आप दुःखमय है।