है कि उसी हेतुवाद को हमारे दार्शनिक कैसे दर्शन और तर्क की भाषा में लाए हैं। पर यहाँ वही बात बच्चों की बोलचाल की भाँति दिखाई पड़ती है। यदि आप मुझसे यह प्रश्न करें कि क्या यह उस समय व्यावहारिक था, तो मैं तो यही कहूँगा कि वह पहले व्यावहारिक था और वही पीछे दर्शन के रूप में आया है। आप देख सकते हैं कि पहले लोगों ने इन बातों को देखा है और साक्षात् किया है, फिर उन्हें लिखा है। प्राचीन विचारशीलों से इस लोक ने कहा है, चिड़ियों ने कहा है, पशुओं ने कहा है, सूर्य्य चंद्रादि ने कहा है। धीरे धीरे उन्हें वस्तुओं का ज्ञान हुआ है और वे प्रकृति के भीतर घुसे हैं। यह ज्ञान उन्हें न विचार करने से प्राप्त हुआ है न तर्क के बल से मिला है; न उन्होंने, जैसे आजकल लोग औरों की अनुभूत बातों को लेकर बड़ी बड़ी पुस्तकें लिखा करते हैं, वैसा ही किया है। और जैसे मैं आज उनके ग्रंथ को लेकर उस पर व्याख्यान दे रहा हूँ, व्याख्यान भी नहीं दिया है। किंतु यह ज्ञान यह सत्य उन लोगों ने शांतिपूर्वक अन्वेषण और परीक्षा करके प्राप्त किया है। इसकी मुख्य प्रणाली व्यवहार ही था और यही सदा रहेगा। धर्म सदा व्यवहार का ही विषय रहता है। वह न तो कभी विश्वास का विषय था और न हो सकता है। पहले कर्म होता है, पीछे ज्ञान। यह भाव कि जीवात्मा लौट आता है, यहाँ विद्यमान है। जो लोग कर्मफल की आकांक्षा से शुभ कर्म करते हैं, उन्हें उसका फल अवश्य मिल जाता है, पर वह सदा के
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