तब तो ईश्वर के संबंध में कुछ सच्चा ही नहीं ठहर सकता है। यदि आप ईश्वर न होते, तो न ईश्वर कभी कहीं था और न होगा। वेदांत का कथन है कि यही आदर्श हैं, इसी का अनु- करण करो। हम प्रत्येक को महात्मा बनना पड़ेगा और आप स्वयं महात्मा ही तो हैं। केवल आप इसे जान जाइए। यह कभी मत समझिए कि आत्मा के लिये कुछ असाध्य है। ऐसा समझना नितांत मिथ्या है। यदि कोई पाप हो सकता है तो यही महापाप है; अर्थात् यह कहना कि हम निर्बल हैं और अन्य लोग निर्बल हैं।
मैं आपको छांदोग्य उपनिषद् की एक कथा सुनाता हूँ जिससे आपको जान पड़ेगा कि एक लड़के में ज्ञान का आविर्भाव कैसे हुआ। कथा की बनावट अत्यंत भोंडी है, पर हमें यह जान पड़ेगा कि इसमें एक सिद्धांत भरा हुआ है। एक छोटे लड़के ने अपनी माता से कहा―‘मैं वेदाध्ययन करने जाता हूँ; मुझे मेरे पिता का नाम और गोत्र बतला दो।’ उसकी माता विवाहिता न थी और भारतवर्ष में ऐसी स्त्री की संतान जो विवाहिता नहीं है, व्रात्य समझी जाती है। समाज के लोग उसे अधि- कारी नहीं समझते और उसने वेद पढ़ने का अधिकार नहीं है।