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मुझे पूर्ण कौन करेगा? मैं तो स्वयं प्राप्त हूँ, पूर्ण हूँ। जब मुझे
अपूर्णता दिखाई पड़ती है, तब मेरे ही मन के अध्यारोप से।
उसको अपूर्णता कहाँ दिखाई पड़ सकती है, यदि उसके भीतर
अपूर्णता न हो? ज्ञानी पूर्णता और अपूर्णता की चिंता नहीं
करता। उसके लिये यह कुछ भी नहीं है। मुक्त होते ही उसे
पाप पुण्य कुछ नहीं देख पड़ते। भला बुरा रह नहीं जाता।
भला बुरा देखता कौन है? वही न जिसके भीतर होता है?
शरीर को कौन देखता है? वही न जो यह समझता है कि मैं
शरीर हूँ? जिस क्षण आप से यह भाव कि मैं शरीर हूँ, छूट
जायगा आपको संसार देख ही न पड़ेगा। यह सदा के लिये नष्ट
हो जायगा, मिट जायगा। ज्ञानी अपने को आध्यात्मिक विश्वास
वा प्रताति के बल से प्रकृति के बंधन से अलग कर लेना चाहता
है। यही निषेधात्मक मार्ग है जिसे “नेति नेति” कहते हैं।
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