पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/३२४

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
[ ३११ ]


को विरोधी जानकर त्याग दो। उन सब विचारों को जो यह कहें कि आप स्त्री हैं पुरुष हैं, छोड़ दीजिए। शरीर को जाने दीजिए, मन को जाने दीजिए, देवताओं और राक्षसों को जाने दीजिए। सबको त्याग दीजिए और उसी ब्रह्म का अव- लंबन कीजिए। जहाँ एक दूसरे को सुनता है, एक दूसरे को देखता है, वहीं क्षुद्र है। जहाँ एक दूसरे की नहीं सुनता, एक दूसरे को नहीं देखता, वहीं ब्रह्म है। वहीं महान् है जहाँ द्रष्टा और दृग् एक हो जाते हैं। जब मैं ही श्रोता, मैं ही वक्ता, मैं ही उपदेष्टा, मैं ही उपदेश, मैं ही सृष्टि हूँ, तभी भय का नाश होता है। वहाँ दूसरा कोई है ही नहीं; भय किसका? वहाँ तो मैं ही अकेला हूँ। फिर भय किसका होगा? इसका नित्य श्रवण करना चाहिए। सब विचारों को छोड़ देना चादिए, सबको त्याग देना चाहिए। इसी का बार बार निरंतर जप करना चाहिए इसी को कानों ले सुनना चाहिए; यहाँ तक कि यह मन में पहुँच जाय, एक एक नाड़ी, एक एक नस में घुस जाय, रक्त को एक एक बूँँद में यही रंग भर जाय कि सोऽहम् सोऽहम्। यहाँ तक कि मृत्यु के द्वार पर भी मुँह से यही सोऽहम् का शब्द निकले। भारतवर्ष में एक संन्यासी था जो शिवोऽहम् कहा करता था। एक दिन उस पर एक बाघ टूटा और उसे घसीटकर उसने मार डाला। जब तक उसमें प्राण रहे, वह शिवोऽहं शिवोऽहं करता रहा। उसके मुँँह से शिवोऽहं का शब्द निकलता रहा। मृत्यु के द्वार पर बड़े से बड़ा भय हो, घने से घना जंगल हो, आपके मुँह से सोऽहं