पर प्रत्यक्ष में हमें सत् और असत् एक ही समय दिखाई नहीं पड़ते। हम सब जन्म के अद्वेत हैं, हम करें तो क्या करें। हमें सदा एक ही देख पड़ता है। जब हम रज्जु देखते हैं तब हमें सर्प दिखाई ही नहीं पड़ता; और जब हम साँप को देखते हैं, तब रज्जु बिलकुल ही नहीं देख पड़ती; वह रह ही नहीं जाती। मान लीजिए कि आप अपने एक मित्र को देख रहे हैं जो सड़क पर आ रहा है। आप उसे अच्छे प्रकार पहचा- नते हैं। पर आप अपने सामने के अंधकार और कुहरे के कारण उसे दूसरा मनुष्य समझते हैं। जब आपको आपका मित्र कोई और दिखाई पड़ता है, तव आप अपने मित्र को नितांत नहीं देखते, वह लुप्त रहता है। आप एक ही को देखते हैं। मान लीजिए, देवदत्त आपका मित्र है। पर जब आपको देवदत्त यज्ञदत्त दिखाई पड़ता है, तब आप देवदत्त को नहीं देखते। प्रत्येक दशा में आपको देख पड़ता है एक ही। जब आप अपने को शरीर के रूप में देखते हैं, आप शरीर हैं; दूसरे कुछ नहीं हैं। मनुष्यों में विशेष लोग ऐसा ही देखते हैं। वे आत्मा, मन इत्यादि की बातें भले ही किया करें, पर वे देखेंगे स्थूल रूप ही से स्पर्श, रस, रूप इत्यादि। फिर कुछ ऐसे लोग भी हैं जो चेतनता की किसी विशेष अवस्था में अपने को मन वा विचार के रूप में देखा करते हैं। आपको वह सर हम्फरी डेवी की बात स्मरण होगी जो अपने चेलों के सामने ‘हँसती गैस’ (Laughing gas) की परीक्षा कर रहे थे और अचानक एक
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