क्योंकि उनमें वह आनंद नहीं मिलता जो ज्ञान में मिलता है। और इसके अतिरिक्त ज्ञान ही एक मात्र लक्ष्य है; और सचमुच वही, जहाँ तक हम जानते हैं, सबसे श्रेष्ठ सुख है। जो अज्ञान में कर्म करनेवाले हैं, वे देवताओं के पशु हैं। देवता का प्रयोग यहाँ विद्वान् और बुद्धिमान के लिये है। जो लोग कर्म करते और परिश्रम करते हैं और कल की भाँति काम करते रहते हैं, उनको सचमुच जीवन का सुख नहीं होता। सुख तो केवल पंडितों ही को होता है। एक धनी लाखों रुपए देकर एक चित्र मोल लेता है। पर उसका आनंद वही पाता है जो उसके गुण को समझता है; और यदि धनी उस कला को नहीं जानता तो वह उसके लिये किसी काम का नहीं है, वह उसका स्वामी मात्र है। संसार भर में वही अकेला पंडित वा बुद्धिमान् पुरुष है जो संसार के सुख को त्यागता है। अज्ञानी पुरुष कभी सुख का भोग नहीं कर सकता। वह दूसरों के लिये अज्ञानवश काम करता रहता है।
यहाँ तक तो हम अद्वैतवादियों के सिद्धांत को देख चुके हैं कि वे केवल 'एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म' मानते हैं। हम यह भी देख चुके हैं कि कैसे समस्त विश्व में एक ही ब्रह्म की सत्ता है और वही सत्ता इंद्रियों द्वारा देखने से जगत्-रूप, प्राकृ- तिक जगत् भासमान होती है। जब वही मन द्वारा देखा जाता है, तब वह मानसिक लोक दिखाई पड़ता है; और जब हम उसे आध्यात्मिक दृष्टि से देखते हैं तब वही अनंत पूर्ण ब्रह्म बोध