आचारशास्त्र का सारा सिद्धांत यही है कि उसका आधार अज्ञेय नहीं होता, वह अज्ञात वस्तु की शिक्षा नहीं देता। पर उपनिषद् की भाषा में जिस “अज्ञात ईश्वर की हम उपासना करते हैं, उसीकी मैं तुझे शिक्षा देता हूँ।” वह आत्मा ही है जिसके द्वारा आपको किसी पदार्थ का बोध होता है। मैं कुरसी को देखता हूँ; पर कुरसी के देखने में मैं पहले आत्मा को देखता हूँ, फिर कुरसी को देखता हूँ। यह आत्मा ही है जिसके द्वारा कुरसी दिखाई पड़ती है। यह आत्मा ही है जिसके द्वारा मैं आपको जानता हूँ और सारे संसार का मुझे बोध होता है। अतः यह कहना कि आत्मा अज्ञात है, नितांत मूर्खता की बात है। आत्मा को दूर कर दो, सारे विश्व का लोप हो जाता है। आत्मा ही के द्वारा तो सारे ज्ञान हममें आते हैं। अतः यह सबसे अधिक विज्ञाततम है। यह आप ही हैं जिसे आप ‘मैं’ कहते हैं। आपको आश्चर्य्य होगा कि कैसे मेरा यह ‘मैं’ तुम्हारा ‘मैं’ हो सकता है। आपको आश्चर्य होगा कि कैसे ग्रह परिमित ‘मैं’ अपरिमित, अनंत हो सकता है; पर ऐसा होता है। ‘परिमित’ कहना केवल कल्पना है। वह अनंत मानों आवृत है और उसका अणुमात्र ‘मैं’ के रूप में व्यक्त हो रहा है। अपरिमित कभी परिमित नहीं हो सकता। यह कल्पना की बात है। अतः आत्मा हम सबको ज्ञात है; स्त्री-पुरुष, आबाल- वृद्ध, पशु-पक्षी सबको आत्मा ज्ञात है। बिना आत्मा के ज्ञान के न हम जी सकते हैं, न गति कर सकते हैं, न अपनी सत्ता
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