नित्य पूर्ण, नित्य सच्चिदानंद ब्रह्म इस भ्रम वा माया में पड़ा? यह वही प्रश्न है जो संसार भर में पूछा जा चुका है। गँवारू बोली में यही प्रश्न इन शब्दों में होता है कि संसार में पाप कैसे आ घुसा? भेद इतना ही है कि यह गँवारू और स्वार्थ लिए हुए है और वह दार्शनिक है; पर दोनों का उत्तर एक ही है। यही प्रश्न भिन्न रूप में और ढंग से पूछा जा चुका है; पर निकृष्ट रूप में इसका कोई समाधान नहीं होता। कारण यह है कि सेब और साँप और स्त्री की कहानियों से इसका समाधान नहीं होता। उस दशा में जैसा यह बच्चों का सा प्रश्न है, वैसा ही उसका उत्तर भी है। पर अब उसी प्रश्न ने उत्तम रूप धारण कर लिया है। ‘यह माया वा भ्रम कहाँ से आया?’ इसका उत्तर भी वैसा ही सूक्ष्म है कि असंभव प्रश्न के उत्तर की आशा करना व्यर्थ है। यह प्रश्न ही पदशः असंभव है। आपको यह प्रश्न करने का अधिकार नहीं है। क्यों? पूर्णता है क्या? जो देश-काल और परिणाम से बाहर हो, वही पूर्ण है। फिर आप कहेंगे कि अच्छा तो पूर्ण वा अखंड अपूर्ण कैसे हो गया? न्याय के शब्दों में यही प्रश्न इस प्रकार होगा कि जो निर्विकार है, वह विकारी कैसे हुआ? यह बद- तोव्याघात दोष है। पहले तो आप उसे निर्विकार मानते हैं, फिर पूछते हैं कि विकारी कैसे हुआ? यह प्रश्न तो विकार को मानने पर ही हो सकता है। जहाँ तक देश-काल और परिणाम की व्याप्ति है, वहीं तक यह प्रश्न हो सकता है। पर उसके
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