पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/३०३

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आवें और जायँ। इससे मुझे क्या? मेरे तो जन्म है न मरण, न मेरे कभी पिता माता थे, न मेरा कोई शत्रु मित्र है; क्योंकि मैं ही तो सब कुछ हूँ, मैं ही अपना मित्र, मैं ही अपना शत्रु हूँ, मैं ही सच्चिदानंद हूँ, मैं वही हूँ। यदि मुझे हजार शरीर में ज्वर आदि से कष्ट है तो करोड़ों शरीर में भी मैं नीरोग हूँ। यदि हजार शरीर में भूखों मरता हूँ तो हजारों शरीर से खिलाता भी हूँ। यदि सहस्र देह में दुःखी हूँ, तो सहस्र देह में सुखी भी हूँ। कौन किसकी निंदा करेगा, कौन किसकी प्रशंसा? किसे ग्रहण करें, किसे त्यागें? मुझे न किसी से राग है न द्वेष। मैं स्वयं समस्त विश्व हूँ। मैं अपनी निंदा आप करता हूँ। अपनी प्रशंसा भी आप ही करता हूँ। मैं अपने आप दुःखी और अपने आप सुखी बनता हूँ। मैं मुक्त हूँ। ऐसा ही पुरुष ज्ञानी, वीर और साहसी है। सारे विश्व को नष्ट होने दो। वह हँसेगा और कहेगा कि यह तो कभी था ही नहीं। यह सब मृगतृष्णा का जाल था; हम तो विश्व को शून्य देखते हैं। वह था कहाँ? वह गया कहाँ?

आभ्यासिक अंश तक पहुँचने के पहले हम एक और विचार-योग्य प्रश्न उठाते हैं। यहाँ तक तो युक्ति बड़ी प्रबल है। यदि कोई तर्क करे तो बिना उसे यह माने ठहरने का स्थान नहीं है कि यहाँ केवल एक ही सत्ता है और सारे पदार्थ जो हैं, कुछ हैं ही नहीं। युक्ति प्रमाण माननेवाले मनुष्य के लिये इसको छोड़ कोई मार्ग नहीं है। पर इसका कारण क्या है कि वह