पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/२९७

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विश्व में एक पूर्ण सत्ता है। और ये सब प्राणीमात्र मनुष्य, पशु, कीट, पतंगादि सब प्रतिबिंब मात्र हैं, सत् नहीं हैं। वह केवल प्रकृति के ऊपर मिथ्या आभास मात्र हैं। विश्व केवल एक ही ब्रह्म है। वही 'मैं' 'तुम' आदि के रूप में भासमान हो रहा है। पर यह भिन्न भिन्न भासमान होना अंत को भ्रम मात्र है। उसका विभाग नहीं हुआ, पर विभाग केवल भासमान हो रहा है। यह भेद इस कारण है कि हम उसे देशकाल और परिणाम के जाल की आड़ से देखते हैं। जब मैं ब्रह्म को देशकाल और परिणाम के जाल से देखता हूँ, तब वह मुझे भौतिक जगत् भासमान होता है। जब मैं कुछ और ऊँचे स्थान से उसी जाल द्वारा देखता हूँ, तब वह मुझे पशु के रूप में देख पड़ता है। और ऊँचे से देखने पर मनुष्य, और और ऊँचे से देवता है। वह विश्व में एक ही पूर्ण सत्ता है और वह सत्ता हम ही हैं। मैं वही हूँ, आप वही हैं। उसके अंश नहीं, पूर्ण हैं। वह शाश्वत ज्ञाता है जो इस गोचर जगत् की आड़ में है; वह गोचर है। वही द्रष्टा है, वही द्दग्:वही मैं हूँ, वही आप हैं। पर यह है कैसे? ज्ञाता को जानें कैसे? ज्ञाता अपने को नहीं जान सकता। मैं सबको देखता हूँ, पर अपने आपको नहीं देखता। वही आत्मा, वही ज्ञाता, सबका अधीश्वर, सत्पुरुष ही विश्व के सारे आभास का कारण है। पर यह असंभव है कि वह अपने को देख सके, अपने को जान, सके, सिवा इसके कि अपना प्रतिबिंब देखे। आपको अपना मुँह बिना दर्पण के नहीं दिखाई देता। इसी प्रकार आत्मा को अपना