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सांख्यदर्शन भारतवर्ष में, और सच कहिए तो संसार भर में, सबसे पुराना दर्शन है। इसके आदि आचार्य्य महर्षि कपिल भारतीय योगशास्त्र के श्रादि प्रवर्तक माने जाते हैं; और जिस सिद्धांत की उन्होंने शिक्षा दी है, वह आज तक भारतवर्ष के सारे प्रमाणिक दर्शनों का मूल है। सब उसके मनोविज्ञान को लेकर चले हैं, अन्य बातों में वे उससे भले ही विरुद्ध क्यों न हो।

वेदांत जो सांख्य का न्यायानुकूल निचोड़ है; अपने निगमन को उससे भी आगे ले जाता है। उसका उत्पत्ति-क्रम कपिल की शिक्षा के अनुकूल होने पर भी द्वैतवाद से संतोष नहीं करता अपितु अपनी जिज्ञासा अंतिम एकता वा अभेदवाद तक करता जाता है जो धर्म और विज्ञान का समान लक्ष है।



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(३२) मुक्त आत्मा।

सांख्य दर्शन द्वैत सत्ता, प्रकृति और पुरुष तक आकर रुक जाता है और आगे नहीं बढ़ सकता। पुरुष की संख्या अनंत मानी गई है। वे असंग वा शुद्ध हैं; उनका नाश नहीं हो सकता और इसी लिये वे प्रकृति से भिन्न हैं। प्रकृति परिणाम को प्राप्त होती हुई समस्त गोचर पदार्थों को अभिव्यक्त करती है। सांख्य के मतानुसार पुरुष अक्रिय है। वह स्वरूप से शुद्ध है और पुरुष के मोक्ष के हेतु प्रकृति सारी सृष्टि को उत्पन्न करती है। पुरुष को प्रकृति से विलग जानने से मोक्ष प्राप्त होता है। यह भी