पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/२९३

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हाँ और नहीं दोनों। पहले तो यह है कि धर्म का इससे अधिक ज्ञान हम प्राप्त नहीं कर सकते; सब प्राप्त हो चुका है। संसार के सब धर्मों में आपको यह प्रतिज्ञा मिलेगी कि हममें एकता है। ज्ञान कहते हैं एकता प्राप्त करने को। हर आपको स्त्री और पुरुष के रूप में देखते हैं, यह भेद ज्ञान है। यह विज्ञान की बात है कि हम आप सबको एक वर्ग में रखकर मनुष्य कहते हैं। उदा- हरण के लिये रसायनशास्त्र को ले लीजिए। रासायनिक लोग सब ज्ञात पदार्थों के मौलिक भूतों को जानना चाहते हैं और उनका अर्थ होता है उस एक मूल तत्व के जानने का जिससे वे सब निकले हैं। वह समय आ सकता है जब कि उन्हें उस मूल तत्व का ज्ञान हो जाय जो सारे भूतों का मूल है। वहाँ पहुँच- कर वे आगे नहीं जा सकते। तब रसायन शास्त्र पूर्ण हो जायगा। यही दशा धर्म के विज्ञान की भी है। यदि हमें पूर्ण अभेद वा एकता का बोध हो जायगा, तो हमें आगे जाना रह ही न जायगा।

दूसरा प्रश्न यह है कि क्या ऐसी एकता मिल सकेगी? भारतवर्ष में धर्म और दर्शन के विज्ञान को प्राप्त करने की चेष्टा की जा चुकी है। कारण यह है कि जैसे पश्चिम के देशों की चाल है, हिंदू इन दोनों को अलग अलग नहीं समझते। हम समझते हैं कि धर्म और दर्शन एक ही वस्तु के दो भिन्न भिन्न रूप हैं और दोनों तर्क और वैज्ञानिक सत्य की कसौटी पर कसे जा सकते हैं।