पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/२८९

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है। दशा ऐसी हो गई है कि यह सर्वतंत्र सिद्धांत हो रहा है। पर सौभाग्यवश हम इसके परे की जिज्ञासा अवश्य करेंगे। यह उपस्थित, यह व्यक उस अव्यक्त की एक कला मात्र हैं। यह इंद्रियगम्य जगत् उस अनंत आध्यात्मिक विश्व का एक अंश वा अणुमात्र है जो निकलकर बोधावस्था को प्राप्त हो गया है। भला जो यह छोटा अंश निकल पड़ा, वह तब तक समझ में कैसे आ सकता है जब तक उसका बोध न हो जो इससे परे है? कहते हैं कि सुकरात एथेंस में व्याख्यान दे रहा था। उसे एक ब्राह्मण मिला जो यूनान में यात्रा करने गया था। सुकरात ने ब्राह्मण से कहा कि मनुष्य के लिये सबसे अधिक जानने योग्य मनुष्य ही है। ब्राह्मण ने उसी समय खंडन कर दिया और कहा―भला ईश्वर को जाने बिना मनुष्य को आप कैसे जान सकते हैं? वह ईश्वर सदा अज्ञेय, केवल, अनंत वा अनाम है; वही सब ज्ञात और ज्ञेय इस जीवन को एकमात्र व्याख्या है। अपने आगे के किसी पदार्थ को ले लीजिए जो अत्यंत स्थूल वा भौतिक हो। अत्यंत भौतिक विज्ञान को ही लीजिए; जैसे रसायन, भौतिकी, ज्योतिष वा प्राणिशास्त्र। उसका अभ्यास कीजिए। अभ्यास बढ़ाते जाइए, स्थूल रूप गलने लगेगा और द्रवीभूत होगा। फिर सूक्ष्मातिसूक्ष्म होता जायगा और जाते जाते ऐसी पराकाष्ठा को प्राप्त हो जायगा जहाँ से आपको एकबारगी इन प्राकृतिक पदार्थों को छोड़कर अप्राकृतिक का आश्रय लेना पड़ेगा। स्थूल बदलकर सूक्ष्म रूप धारण कर लेता