लिये एक पुरुष की भी आवश्यकता है। उसी विश्वगत पुरुष को जो इस प्रकृति और उसकी अभिव्यक्ति के परे है, हम ईश्वर परमेश्वर आदि कहते हैं।
अब अत्यंत आवश्यक विचार है जिसमें हमारा मतभेद है। क्या एक से अधिक पुरुष हो सकते हैं? हम देख चुके हैं कि पुरुष सर्वगत और अनंत माना गया है। सर्वगत और अनंत दो नहीं हो सकते। मान लीजिए कि दो अनंत हैं―‘अ’ और ‘व’। तो ‘अ’ और ‘ब’ में सीमा-भेद होगा; क्योंकि ‘अ’ ‘ब’ नहीं है, ‘ब’ ‘अ’ नहीं है। भिन्नता पार्थक्य का नाम है और पार्थक्य ससीमता को कहते हैं। अतः ‘अ’ और ‘ब’ जो एक दूसरे की सीमा के कारण हैं, निःसीम वा अनंत नहीं रहते। अतः एक ही अनंत हो सकता है और वही एक पुरुष है।
अब हम उन्हीं ‘क’ और ‘ख’ को लेते हैं और यह सिद्ध किए देते हैं कि दोनों एक हैं। हम यह सिद्ध कर चुके हैं कि जिसे हम बाह्य जगत् कहते हैं, वह क+मन है और जिसे आभ्यंतर जगत् कहते हैं, वह ख+मन है। ‘क’ और ‘ख’ अज्ञात और अज्ञेय पद हैं। अंतर देश, काल और परिमाण के कारण है। मन इन्हीं से बना है। बिना उनके मन की कोई क्रिया ही नहीं हो सकती। आप बिना काल के सोच नहीं सकते,न देश के बिना आप किसी को समझ सकते हैं; और परिणाम बिना आपको कुछ उपलब्ध नहीं हो सकता। यह मन के रूप हैं। इन्हें अलग कर दीजिए, फिर मन ही न रह जायगा। अतः भेद का