सारा विश्व प्रकृति से व्युक्त हुआ है वा विकास को प्राप्त हुआ है। अतः सारा विश्व अपने कारण से भिन्न नहीं हो सकता। कपिल के मतानुसार अव्यक्त से लेकर बुद्धि या अहंकार तक एक भी भोक्ता नहीं है। जैसे मिट्टी का डला वैसे मन का डला। मन में स्वतः कोई प्रकाश नहीं है; पर हम देखते हैं कि उसमें बुद्धि है वा बोध होता है। अतः हम देखते हैं कि इनके परे कोई और है जिसका प्रकाश महत् वा अहंकार और अन्य विकारों पर पड़ता है; और कपिल इसी को पुरुष और वेदांत आत्मा कहता है। कपिल के अनुसार पुरुष असंग है। उसमें संयोग नहीं है; वह अप्राकृतिक है और वही अकेला ऐसा है जो भौतिक नहीं है। उसको छोड़कर शेष सब भौतिक हैं। मुझे एक काला तख्ता दिखाई पड़ता है। बाह्य गोलक उसके संस्कारों को इंद्रियों तक पहुँचाता है। इंद्रियाँ उसे मन को पहुँचाती हैं, मन उसे बुद्धि को देता है और बुद्धि उसे जान नहीं सकती। उसका ज्ञान पुरुष को होता है जो उससे परे है। यही कपिल का मत है। यह सब मानो उसके दास हैं और संस्कार को उसके पास लाते हैं; और वह उनको आज्ञा देता है। वह उनका भोक्ता है, द्रष्टा है, सत् है, राजा है, मनुष्य की आत्मा है; वह अप्राकृतिक है। वह भौतिक वा प्राकृतिक नहीं है। इससे यह तात्पर्य्य है कि वह अनंत है, उसकी कोई अवधि नहीं है। सब पुरुष सर्व- व्यापी हैं; पर वे लिंग शरीर के द्वारा ही कर्म करते हैं। मन, अहंकार, इन्द्रियों और प्राण से लिंग शरीर बनता है। इसी
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