अद्भुत और आदि दार्शनिक का नाम आया है। ‘ऋषिप्रसूर
कपिलं यस्तमग्रे’ उसके ज्ञान कैसे आश्चर्य्यजनक थे। यदि
योगियों के अलौकिक बल के प्रमाण की आवश्यकता है, तो
ऐसे ही लोग प्रमाण हैं। उनके पास कोई दूरदर्शक या सूक्ष्म-
दर्शक यंत्र नहीं थे। पर उनकी दृष्टि कितनी सूक्ष्म थी और
उनकी छानबीन कितनी ठीक और आश्चर्यजनक थी!
मैं अब यह दिखलाऊँगा कि शोपनहार और भारतवर्ष के दार्शनिकों के क्या अंतर है। शोपनहार कहता है कि इच्छा ही सबका कारण है। हम इच्छा ही के कारण व्यक्त होते हैं; पर हम इसे नहीं स्वीकार करते। हम इच्छा तो कर्मतंतु का समानार्थक है। जब हम किसी पदार्थ को देखते हैं, तब इच्छा नहीं होती। जब हमारे मस्तिष्क में संस्कार पहुँचता है, तब वेदना होती है और यह निश्चय होता है कि यह करो, यह न करो। अहंकार को इसी दशा का नाम इच्छा है। कोई इच्छा बिना वेदना के नहीं होती। इच्छा के पूर्व कितनी बातें हो चुकती हैं। यह अहंकार से उत्पन्न होती है और अहंकार महत्तत्व का विकार है; और महत्तत्व प्रकृति का विकार है। यह बौद्धों का विचार है कि जो कुछ हम देखते हैं, इच्छा वा चैतसिक है। यह मनोविज्ञान की दृष्टि से असंगत है, क्योंकि इच्छा कर्मतंतु मात्र है। यदि आप कर्मतंतु को निकाल डालें तो मनुष्य में इच्छा होगी ही नहीं। इस बात का निश्चय क्षुद्र जंतुओं के ऊपर परीक्षा द्वारा हो चुका है।