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हमारे ग्रंथों में जहाँ जहाँ ईश्वर शब्द वा देवता शब्द आता है, वहाँ कपिल कहते हैं कि ऐसे ही मुक्त प्राणियों के अर्थ में आता है।

कपिल का विश्वास कभी आत्मा की एकता पर नहीं था। उनका अन्वेषण सचमुच लोकोत्तर ही था। वे भारतीय दार्श- निकों में आदि दार्शनिक ऋषि कहलाते हैं। बौद्ध धर्म आदि उन्हीं के विचार के फल हैं।

सांख्यशास्त्रानुसार आत्मा अपने मुक्त स्वभाव और अपने अन्य सर्वशक्तिमत्व, सर्वज्ञत्वादि गुणों को प्राप्त कर सकती है। पर प्रश्न यह उठता है कि बंधन कहाँ से आता है। कपिल कहता है कि इसका आदि नहीं है। पर यदि यह अनादि है, तो अनंत भी होगी और हमें मुक्ति का लाभ न होगा। वह कहता है कि यद्यपि बंधन अनादि है, पर यह आत्मा का नित्य धर्म नहीं है। दूसरे शब्दों में प्रकृति (बंधन का कारण) अनादि और अनंत है, पर उस अर्थ में नहीं जिसमें आत्मा है; क्योंकि प्रकृति का कोई व्यक्तित्व वा रूप नहीं है। वह नदी के समान है जिसमें पानी का प्रवाह नित्य चला करता है। उसी प्रवाह को नदी कहते हैं; पर नदी कोई नित्य या स्थायी वस्तु नहीं है। प्रकृति में सब विकारवान् हैं। पर आत्मा निर्विकार है। प्रकृति में सदा विकार होता रहता है। संभव है कि आत्मा उसके बंधन से मुक्त हो जाय।

समस्त विश्व का रचना-क्रम वही है जो इसके अंश का