दो लोक हैं―सूक्ष्म और स्थूल, आभ्यंतर और बाह्य। दोनों से अनुभव द्वारा हमें सत्य का ज्ञान होता है। सूक्ष्म वा बाह्य जगत् से अनुभव द्वारा जो ज्ञान मिलता है, वह मनोविज्ञान (योग), अध्यात्म विद्या (वेदांत) और धर्म है; और बाह्य जगत् से जो ज्ञान मिलता है, वह भौतिक विज्ञान (वैशेषिक) है। जो शुद्ध और सत्य ज्ञान है, उसे दोनों जगतों के अनुभव से प्रमा- णित होना चाहिए। सूक्ष्म से स्थूल को और स्थूल से सूक्ष्म को प्रमाणित होना चाहिए। भौतिक विज्ञान को आभ्यंतर जगत् का पूरक वा अंग होना चाहिए और आभ्यंतर जगत् को बाह्य का साधक। पर प्रायः इनमें अनेक बातें एक दूसरी के विरुद्ध प्रतीत होती हैं। इतिहास के एक काल में आभ्यंतर प्रधान हो जाता है और बाह्य के विरुद्ध विवाद आरंभ कर देता है। आधुनिक समय में बाह्य वा भौतिक की प्रधानता है और उससे योग और वेदांत की अनेक बातें दब गई हैं। जहाँ तक मुझे बोध है, योग के मुख्य अंश आधुनिक भौतिक विज्ञान के तत्व के अनुकूल हैं। यह किसी व्यक्ति विशेष के लिये आव- श्यक नहीं है कि वह सब बातों में व्युत्पन्न हो; न यह किसी जाति वा वंश के भाग्य की बात है कि वह ज्ञान के सारे क्षेत्रों में समान रूप से पारगंत हो। आधुनिक युरोप के विद्वान् बाह्य भौतिक विज्ञान की छानबीन में अवश्य व्युत्पन्न और
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(२८) विश्व-विधान।