कारण का कार्य्य के उत्पन्न करने के लिये रहना आवश्यक है।
यही नहीं, कारण ही कार्य्य हो जाता है। शीशा कुछ पदार्थों
और कुछ शक्तियों से, जिन्हें बनानेवाला काम में लाता है, बनता
है। शीशे में शक्ति और द्रव्य दोनों हैं। जो शक्ति लगी है वह
संसक्ति के रूप में है। यदि संसक्ति की शक्ति न रहे तो शीशे
के अंश अलग अलग हो जायँ। द्रव्य भी शीशे में है। केवल
रूप बदल गया है। कारण ही कार्य्य हो गया है। जो आपको
कार्य्य दिखाई पड़ता है, वह आपको सदा कारण में देख
पड़ेगा। कारण ही कार्य्य रूप में व्यक्त होता है। अब यह
परिणाम निकलता है कि ईश्वर यदि विश्व का कारण है, और
विश्व कार्य्य है तो ईश्वर ही विश्व वन गया है। यदि आत्मा
कार्य्य और ईश्वर कारण है तो ईश्वर ही आत्मा बन गया है।
प्रत्येक आत्मा इसी लिये ईश्वर का एक अंश है। जैसे अग्नि से
अनेक चिनगारियाँ निकलती हैं, वैसे ही अनंत शाश्वत विश्वा-
त्मा से यह आत्मा निकलते हैं।
हम यह देख चुके हैं कि नित्य ईश्वर और नित्य प्रकृति है। और अनंत संख्यक आत्माएँ भी हैं। यह धर्म की प्रथम श्रेणी है। इसे द्वैतवाद कहते हैं जिसमें मनुष्य अपने को ईश्वर से निरंतर पृथक् देखता है―जिसमें ईश्वर पृथक् है, आत्मा पृथक् है और प्रकृति पृथक् है। यह द्वैतवाद है जिससे द्रष्टा और दृश्य सर्वत्र एक दूसरे से विरुद्ध और अलग अलग हैं। उसमें द्रष्टा और दृश्य के भेद से द्वैत दिखाई पड़ता है। जब मनुष्य