उसकी मात्रा सदा समान रहती है। केवल संकोच और विकाश से अभिव्यक्ति में भेद पड़ता रहता है। अतः यह कल्प पूर्व कल्प के संकोच का विकाश है और इस विकाश का फिर संकोच होगा। सब सूक्ष्मातिसूक्ष्म होते जायँगे और फिर दूसरे कल्प का आरंभ होगा। इस प्रकार सारा विश्व अपनी कक्षा में जा रहा है। अतः हम देखते हैं कि इस दृष्टि से कि असद् से सद् की उत्पत्ति होती है, कोई सृष्टि होती ही नहीं। इसी को दूसरे शब्दों में इस प्रकार कह सकते हैं कि यह अभिव्यक्ति है और ईश्वर उसका अभिव्यंजक है। विश्व मानो उसके श्वास प्रश्वास की भाँति उससे निकलता और उसमें पैठता रहता है। वेदों में एक उपमा के रूप में इसका क्या ही अच्छा वर्णन किया गया है। ‘महाभूत इस विश्व को श्वास की तरह खींचता और फेंकता रहता है।’ जैसे हम छोटे छोटे कणों वा अणुओं को श्वास से बाहर निकालते और फिर भीतर ले जाते रहते हैं। यह तो बहुत ही ठीक है, पर प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि क्या यह पहला कल्प है? उत्तर यह है कि पहले कल्प का अर्थ क्या है। कल्प तो कुछ है ही नहीं। यदि आप काल का आदि मानें, तब तो वह काल रहा ही नहीं। तनिक काल के आरंभ का तो ध्यान कीजिए; फिर आपको उसके आगे भी काल को मानना पड़ेगा। तनिक देश के आरंभ का ध्यान कीजिए, आपको उससे परे भी देश दिखाई पड़ेगा। देश और काल अनंत हैं; अतः उनका आदि और अंत
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