इसी प्रकार चलता रहता है। एक समय आता है जब यह
समस्त विश्व सूक्ष्म होते होते अंत को तिरोभूत हो जाता है
और अति सूक्ष्म अवस्था को धारण कर लेता है। हमें आधु-
निक विज्ञान और ज्योतिषशास्त्र के द्वारा जान पड़ता है कि
यह पृथ्वी ठंढी होती जाती है। कालांतर में यह बहुत ठंढी हो
जायगी और तब यह छिन्न भिन्न हो जायगी और इतनी सूक्ष्म
हो जायगी कि यह आकाश के रूप में हो जायगी। पर फिर
भी परमाणु रह जायँगे और उनसे पुनः दूसरी पृथ्वी उत्पन्न
होगी। फिर वह लुप्त हो जायगी और दूसरी बनेगी। इस
प्रकार पहले यह विश्व अपने कारण में लय हो जायगा; फिर
इसकी सामग्री इकट्ठी हो जायगी और दूसरा रूप धारण
करेगी। वह लहर की भाँति उठती बैठती रहेगी। कारण में
लय होने और फिर निकलकर रूप धारण करने की यह क्रिया
चलती रहेगी। इसी को संस्कृत में संकोच और विकाश कहते
हैं। सारे विश्व में संकोच और विकाश होता रहता है। आधु-
निक विज्ञान की बोलचाल में उनका अवरोह और आरोह
होता रहता है। आपने आरोह के संबंध में सुना होगा कि
रूपों का विकाश कैसे तुच्छ रूपों से धीरे धीरे उन्नति होते होते
होता है। हम जानते हैं कि विश्व में शक्ति की मात्रा सदा एक
ही रहती है और द्रव्य का नाश नहीं होता। आप किसी
प्रकार द्रव्य का एक अणु भी कम नहीं कर सकते। आप एक
छटाँक बल को निकाल नहीं सकते हैं, न मिला ही सकते हैं।
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