फिर आगे चलकर हमें इस बात को शिक्षा मिलती है कि ईश्वर प्रकृति में अंतर्भूत है। वह केवल स्वर्ग ही का ईश्वर नहीं है, अपितु पृथ्वी पर भी वह है। वह ईश्वर हममें भी है। हिंदू-दर्शनों में हमें ईश्वर के अपने सान्निध्य की इसी प्रकार की श्रेणी मिलती है। पर हमें यहीं पड़े न रहना चाहिए। आगे चलकर अद्वैतवाद मिलता है। वहाँ चलकर मनुष्य को जान पड़ता है कि मैं जिस ईश्वर की उपासना करता हूँ, वह स्वर्ग और पृथ्वी का पिता नहीं है, अपितु वहाँ “मैं और मेरा बाप एक ही हैं” की बात है। वह अपनी आत्मा में यह साक्षात् करता है कि मैं स्वयं ईश्वर हूँ। केवल उसकी एक लघु अभि- व्पक्ति मात्र हूँ। मुझमें जो सत्य है, वही है; उसमें जो सत् है, वह मैं हूँ। ईश्वर और मनुष्य के बीच के गड्ढे पर सेतु बँध गया। इस प्रकार हमें जान पड़ता है कि ईश्वर के जानने से हमें स्वर्ग का साम्राज्य कैसे मिल जाता है। पहली वा द्वैत् अवस्था में मनुष्य यह समझता है कि मैं व्यक्ति विशेष आत्मा देवदत्त वा यज्ञदत्त हूँ। वह कहता है कि मैं सदा देवदत्त वा यज्ञदत्त रहूँगा, और दूसरा न होऊँगा। चाहे घातक भले ही आवे और कहे कि मैं मार डालूँगा। देवदत्त यज्ञदत्त भले ही न रहें, पर वह शुद्ध आत्मा में लौट जायगा।
‘धन्य हैं वे जिनके हृदय शुद्ध हैं, क्योंकि वे ईश्वर को देखेंगे’। क्या हम ईश्वर को देख सकते हैं? वास्तव में नहीं देख सकते। क्या हम ईश्वर को जान सकते हैं? वास्तव में नहीं