पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/२१६

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आत्मा को मुक्त-स्वभावता सिद्ध होती है। मान लीजिए कि आदि है ही, तो मनुष्य की अपवित्रता का सारा भार ईश्वर पर पड़ता है। वह दयामय पिता संसार के पापों का उत्तरदायी! यदि पाप इस प्रकार पाते हैं, फिर एक दूसरे से अधिक दुःखी क्यों हैं? यह पक्षपात की बात क्यों, जब पाप दयामय ईश्वर ही के कारण हैं। फिर करोड़ो मनुष्य लात क्यों खा रहे हैं, भूखों क्यों मरते हैं और जिन्होंने कुछ किया ही नहीं, वे दुःख क्यों भोग रहे हैं? इसका उत्तरदाता कौन है? यदि इसमें हमारा कोई वश नहीं, तब तो ईश्वर ही के सिर इसका भार है। अतः इससे अच्छा समाधान यही है कि मैं ही अपने दुःख का कारण हूँ। यदि मैं चक्कर को चलाता हूँ तो उसके चलाने का उत्तरदाता मैं हूँ। यदि मैं दुःख को ला सकता हूँ, तो मैं उसे दूर भी कर सकता हूँ। इससे यही निकलता है कि मैं स्वतंत्र हूँ। भाग्य कोई वस्तु है ही नहीं। कोई हमें बाध्य नहीं कर सकता। जिसे मैंने किया है, मैं उसे मिटा भी सकता हूँ।

इस सिद्धांत के संबंध में एक युक्ति सुनने के लिये मैं आप से धैर्य्य करने की प्रार्थना करूँगा। कारण यह है कि वह कुछ गहन है। हमें ज्ञान अनुभव से होता है; यही ज्ञान का एक मात्र साधन है। जिसे हम अनुभव कहते हैं, वह चेतन अवस्था में होता है। उदाहरण के लिये मान लीजिए कि एक मनुष्य पियानो बजा रहा है। वह उसकी कुंजियों पर समझ बूझकर हाथ फेरता जाता है। वह इस प्रकार हाथ फेरता जाता है