उन्हें सुनते ही हैं। हमें जान पड़ा कि मनुष्य के शरीर है, आँख
और कान आदि इंद्रियाँ है। उसमें एक आध्यात्मिक प्रकृति भी
है जो दिखाई नहीं पड़ती। इस आध्यामिक शक्ति से वह भिन्न
भिन्न धर्मों का अध्ययन कर सकता है और उसे जान पड़ता
है कि सब धर्मों की, चाहे उनकी शिक्षा भारतवर्ष के जंगलों
में दी गई हो वा ईसाई देशों में, मूल तत्व एक ही है। इससे
यह प्रमाणित होता है कि मनुष्य के लिये धर्म की स्वाभाविक
रूप से आवश्यकता है। एक धर्म का प्रमाण दूसरे धर्मों की
प्रामाणिकता पर अवलंबित है। मान लीजिए कि हमारे छः
उँगलियाँ हैं, और किसी के नहीं हैं। आप कहेंगे कि यह
अधिकांगता है। यही तर्क वा युक्ति इसके लिये भी काम में
आ सकती है कि एक ही धर्म सत्य और दूसरा मिथ्या है।
ऐसा एक धर्म उसी छंगुली के समान संसार में अस्वाभाविक
होगा। अतः हम देखते हैं कि यदि एक धर्म सत्य है, तो और
सब धर्म भी सत्य ही होंगे। असार बातों में अंतर हो सकता
है, पर सार रूप में सब एक ही हैं। यदि मेरी पाँच उँगलियों
की बात सत्य है, तब तो आपकी पाँच उँगलियाँ भी सत्य ही हैं।
जहाँ मनुष्य हैं, वहीं उनमें विश्वास उत्पन्न होगा और धर्म के भाव का विकास होगा। संसार के भिन्न भिन्न धर्मों के पर्य्यवेक्षण से मुझे दूसरी बात यह जान पड़ती है कि आत्मा और परमात्मा के संबंध में भिन्न भिन्न विचारों की श्रेणियाँ हैं। पहली श्रेणी तो यह है कि यह बात सब धर्मवाले स्वीकार