है। बिना उसके और दूसरा हो कैसे सकता है? यह मिठास
उसके अतिरिक्त कहाँ है? यह याज्ञवल्क्य का कथन है। जब तुम
उस दशा को प्राप्त होते हो और सबको उसी दृष्टि से देखते हो,
जब तुम्हें, मद्यप को जो पानंद मद्य में मिलता है, उसमें भी
उसीकी मिठास दिखाई पड़े, तब जानो कि तुम्हें सत्य मिल गया।
तभी तुम यह जानोगे कि आनंद क्या है, शांति किसे कहते हैं,
प्रेम किसका नाम है। जब तुम में यह व्यर्थ का भेद भाव बना
है, यह बच्चों का सा तुच्छ पक्षपात बना है, सब प्रकार के
ही दुःख होंगे। पर वह अमर, वह तेजस्वी जो पृथ्वी के भीतर
है, यह उसी की मिठास है और वही शरीर में है। यह शरीर
मानों पृथ्वी है और शरीर के सारे बल, शरीर के सारे सुख-
भोग वही हैं। आँखें देखती हैं, त्वचा स्पर्श करती है; यह सब
विषय हैं क्या? वही स्वयंप्रकाश है जो शरीर में है; वही
आत्मा है। यह संसार जो सबको इतना मीठा है और सब
प्राणी संसार को मीठे हैं, क्या है? वही स्वयंप्रकाश तो
है। इस लोक में आनंद ही निर्विकार है। हममें भी वही
आनंद है। वही ब्रह्म है। “यह वायु सबको इतनी मीठी है
और सब प्राणी इसे इतने मीठे हैं, पर वह जो वायु में स्वयं-
प्रकाश और अविनाशी सत्ता है, वही इस शरीर में भी है। वह
अपने को सब प्राणियों के जीवन के रूप में व्यक्त कर रहा
है। सूर्य्य सब प्राणियों का मधु है और सब प्राणी सूर्य्य के
मधु हैं। जो स्वयंप्रकाश पुरुष सूर्य्य में है, उसकी तुच्छ किरण
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