कोई एक ही होगा। जब उसी सर्वोत्कृष्ट पर सूक्ष्म आवरण
रहता है, तब हम उसे भिन्न भिन्न प्रकार का भला कहते
हैं और जब आवरण स्थूल होता है, तब वही बुरा कहलाता
है। भले और बुरे विश्वास के भिन्न भिन्न रूप हैं। वे भिन्न
भिन्न प्रकार के द्वैत विचार से उत्पन्न हुए हैं और नाना प्रकार
के भाव और शब्द लोगों के हृदय में जम गए हैं। वे स्त्री पुरुष
को कष्ट दे रहे हैं और वहाँ आततायियों की भाँति डेरा डाले
हुए हैं। वे हमें बाघ बना देते हैं। सारी घृणा जो हम दूसरों
के प्रति करते हैं, वह इसी भले और बुरे के विचार से जो
बचपन से हमारे मन में गड़े हैं, उत्पन्न होती है। मनुष्य
के संबंध में हमारा विचार नितांत मिथ्या हो जाता है; हम
इस सुंदर पृथ्वी को नरक बनाए हुए हैं। पर ज्यों ही हममें से
भले बुरे के विचार जाते रहते हैं, वह फिर स्वर्ग हो जाती है।
पृथ्वी सब प्राणियों के लिये मीठी है और सब प्राणी पृथ्वी के लिये मीठे हैं। वे परस्पर एक दूसरे के सहायक हैं। और सारी मिठास आत्मा है―वही स्वयंप्रकाश अमृत जो पृथ्वी के भीतर है। यह मिठास किसकी है? बिना उसके मिठास हो कैसे सकती है? वही एक मिठास नाना रूपों में प्रकट हो रही है। जहाँ कहीं किसी मनुष्य में कुछ प्रेम, कुछ मिठास है, चाहे वह महात्मा हो वा पापात्मा, देवता हो वा हिंसक, चाहे वह शारी- रिक हो, मानसिक हो वा आध्यात्मिक, सब वही है। शारीरिक सुख वही है, मानसिक सुख वही है,, आध्यात्मिक सुख वही