पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/२०५

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सारे स्वादु का जिह्वा, सारे रूपों का चक्षु, सारे शब्दों का आधार कान, सारे विचारों का आधार मन, सारे विचारों का हृदय, सारे कर्मों का हाथ है। जैसे नमक को एक कंकड़ी यदि समुद्र में डाल दी जाय तो वह मिल जाती है, हम उसे फिर निकाल नहीं सकते, इसी प्रकार हे मैत्रेयी,वह आत्मा नित्य अनंत है; उसमें सब ज्ञान है। उसीसे सारा विश्व निकलता और फिर उसीमें समा जाता है। उसमें मृत्यु वा मरण का कोई ज्ञान नहीं रह जाता। हमें यह विचार होता है कि हम उससे चिनगारी की भाँति निकले हैं और जब तुमको उसका ज्ञान हो जाता है तब तुम उसमें जाकर एकीभूत हो जाते हो। हम विश्वात्मा हैं।”

मैत्रेयी इससे भयभीत हो गई, जैसे सर्वत्र लोग डर जाया करते हैं। वह कहने लगी―“महाराज, आपने तो मुभो भ्रम में डाल दिया। आपने यह कहकर मुझे डरा दिया कि फिर कोई देवता न रहेंगे, सारी व्यक्तिता जाती रहेगी; न कोई देखने वा पहचानने को रहेगा, न प्रेम करने को और न घृणा करने को। तो फिर हमारी क्या दशा होगी?” “मैत्रेयी! मैं तुम्हें भ्रम में नहीं डालना चाहता। तुम इस बात को छोड़ दो। तुम भले ही डरो; पर दो कहाँ हैं कि कोई किसी को देखे या सुने, किसी का स्वागत करे, किसी को जाने? पर अब सब आत्मा हो गया, तब कौन किसे देखे, कौन किसकी सुने, कौन किसका स्वागत करे, कौन किसको जाने।’ इसी एक विकार को शोपनहार ने ले लिया है और उसके दर्शन में इसी के साथ