प्रिय नहीं होता, केवल आत्मा की कामना ही से धन प्रिय होता है। ब्राह्मण से कोई ब्राह्मण के लिये प्रेम नहीं करता, केवल आत्मा के लिये ही लोग ब्राह्मण से प्रेम करते हैं। क्षत्रिय से कोई क्षत्रिय के विचार से प्रेम नहीं करता, आत्मा ही के विचार से क्षत्रिय से लोग प्रेम करते हैं। संसार से कोई संसार के लिये प्रेम नहीं करता, आत्मा ही के लिये लोग संसार से प्रेम किया करते हैं। इसी प्रकार देवताओं से कोई देवता के लिये प्रेम नहीं करता, केवल आत्मा के लिये ही देवता लोगों को प्रिय होते हैं। कोई किसी से उसके लिये प्रेम नहीं करता, केवल आत्मा ही के लिये वह उसे प्रिय होता है। अतः आत्मा का श्रवण, मनन और निदध्यासन करना चाहिए। हे मैत्रेयी! जब आत्मा का श्रवण, मनन और निदध्यासन किया जाता है, तभी इन सबका ज्ञान हो जाता है।” इससे क्या तात्पर्य निकलता है? हमारे सामने एक अद्भुत विज्ञान आता है। बात यह है कि नीची दशा में सब प्रेम स्वार्थ से होते हैं। कारण यह है कि मैं अपने से प्रेम करता हूँ, इसी लिये मैं दूसरों से प्रेम करता हूँ। पर यह हो नहीं सकता। आजकल भी दार्शनिक हैं जो यह समझते हैं कि आत्मा ही संसार में मुख्य कर्मशक्ति है। यह ठीक तो है, पर मिथ्या भी है। यह आत्मा तो उस सच्ची आत्मा की छाया मात्र है जो इससे परे है। यह मिथ्या और तुच्छ इसलिये जान पड़ता है कि यह स्वल्प है। अनंत प्रेम आत्मा का, जो विश्व है, इस कारण तुच्छ और मिथ्या जान
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