प्रमाण है। एक छोटी चींटी से लेकर जो हमारे पैर तले पड़ती है, बड़े से बड़े प्राणी तक सबके भिन्न भिन्न शरीर हैं, पर उनकी आत्मा एक है। आप ही सबके मुँह से खाते हैं, सबके हाथों से काम करते हैं, सबकी आँखों से देखते हैं। जब यह भाव उत्पन्न हो जाता है, हम इसे साक्षात् करते हैं, इसे देखते हैं, इसका अनुभव करते हैं, तभी सब दुःख दूर हो जाते हैं और भय भाग जाता है। भला मैं मरूँगा कैसे? मुझसे परे तो कुछ है ही नहीं। जब भय दूर हो जाता है, तभी पूर्ण आनंद प्राप्त होता है, पूर्ण प्रेम का संचार होता है। विश्वव्यापी अनुकंपा, प्रेम, सुख जिसमें कभी विकार नहीं, मनुष्य को सबसे ऊँचे पहुँचा देता है। इसमें कोई वेदना नहीं, इसमें दुःख का लेश नहीं; पर खाने-पीने की बातों से मनुष्य में वेदना उत्पन्न होती है। इसका सारा कारण यही द्वैतभाव है―यही भाव कि मैं विश्व से अलग हूँ, ईश्वर से भिन्न हूँ। पर ज्यों ही हम इस भाव को पहुँच जाते हैं कि ‘मैं वह हूँ, मैं विश्वात्मा हूँ, मैं नित्यानंद नित्य मुक्त हूँ’ उसी समय हममें सच्चे प्रेम का उदय होता है, भय जाता रहता है और सव दुःख दूर हो जाते हैं।