सत्ता इसके परे है, वही एक ब्रह्म है। वहाँ पर हम सब एक ही हैं। आत्मा तो संसार में एक ही है। वही तुम में, चही मुझ में है, पर है वह एक ही। उसी एक आत्मा की छाया भिन्न भिन्न शरीरों में भिन्न भिन्न प्रत्यगात्मा के रूप में भासमान होती है। पर हमें इसका ज्ञान नहीं है; हम समझते हैं कि हम सब अलग अलग हैं और उससे भी अलग ही हैं। जब तक हम ऐसा समझेंगे, संसार में दुःख ही है। यह भ्रम मात्र है। इसके अतिरिक्त दुःख का दूसरा कारण भय है। मनुष्य दूसरे को हानि क्यों पहुँचाते हैं? कारण यही है कि वे डरते हैं कि उनके मारे मुझे भोग करना न मिलेगा। कोई तो यह डरता है कि मुझे पर्याप्त धन न मिलेगा और इसी भय से वह दूसरे को हानि पहुँचाता वा चोरी करता है। भला जहाँ संसार में एक ही है, वहाँ भय कैसे हो सकता है। यदि मेरे सिर पर वज्र गिरे तो वह वज्र भी मैं ही हूँ, क्योंकि वहाँ तो मैं ही मैं रहूँगा। यदि प्लेग है तो मैं ही हूँ, बाघ है तो मैं ही हूँ, मृत्यु है तो मैं ही हूँ। मैं ही मृत्यु और जीवन दोनों हूँ। हम देखते हैं कि जहाँ यह भाव है कि संसार में दो हैं, वहीं भय है। हमने यह सदा उपदेश करते सुना है कि परस्पर प्रेम रखो। पर इसका उपदेश क्यों किया जाता है? इसका उत्तर यही है कि हम परस्पर प्रेम इसलिये करें कि हम एक ही हैं। मैं अपने भाई से प्रेम क्यों करता हूँ? इसी लिये न कि वह और मैं एक ही हूँ। वहाँ भी वही एकता है। यही विश्व की एकता का दृढ़
पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/१९९
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
[ १९१ ]