और अपने प्रेम के भांडार से मनुष्य को दान बाँटते हैं। जहाँ तक मन जाता है, भगवान् साक्षात् प्रकट हैं। यही भक्ति योग की शिक्षा है।
अब हम अंत को ज्ञानयोगी की बात कहती हैं; अर्थात् उस दार्शनिक, उस चिंतक की जो प्रत्यक्ष के आगे जाना चाहता है। वह ऐसा पुरुष है जिसे इस संसार के तुच्छ पदार्थों से संतोष नहीं है। वह नित्यकर्म, खाने-पीने आदि से भी परे जाना चाहता है; यहाँ तक कि सहस्रो पुस्तकों की बातों से भी उसका तोष नहीं होता। यहाँ तक कि सारे विज्ञान से भी उसकी तृप्ति नहीं होती; उनसे उसे केवल इस छोटे लोक का कुछ ज्ञान मात्र हो जाता है। फिर और दूसरी बातों से उसकी क्या शांति हो सकती है? करोड़ों लोक लोकांतर उसे शांति नहीं दे सकते। वे सव उसके सामने सत्ता के समुद्र की एक बूंद के बराबर हैं। इन सबसे परे सत्य को देखकर कि वह है क्या, उसका साक्षा- त्कार करके, वही होकर और विश्वात्मा में एकीभूत होकर उसका मन सत्ता के भीतर घुसना चाहता है। वही दार्शनिक है; उसके लिये ईश्वर के माता, पिता, विश्वनाष्टा, पालनकर्ता, उपदेष्टा, आदि भाव सब अपूर्ण जान पड़ते हैं और उसका यथार्थ बोध नहीं करा सकते। उसके लिये ईश्वर उसके प्राण का भी प्राण, उसकी आत्मा की भी आत्मा है। ईश्वर उसकी आत्मा ही है। उसके लिये ईश्वर के अतिरिक्त कुछ रह ही नहीं जाता। उसकी मनुष्यता दर्शन के भारी आघात से घिस जाती