पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/१४८

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
[ १४२ ]


अर्थ है कि सारे संसार के लोगों का एक ही धार्मिक सिद्धांत हो जाय, तो ऐसा होना नितांत असंभव है। ऐसा कभी हो नहीं सकता। ऐसा समय कभी आवेगा ही नहीं जब सबके रूप एक ही साँचे में ढले से होंगे। यदि हम यह आशा रखें कि कभी संसार में एक विश्वव्यापक पुराण रह जायगा, तो यह भी असंभव है। ऐसा कभी होगा नहीं; न कभी संसार में एक ही कर्मकांड का प्रचार होगा। ऐसी बात कभी होने की नहीं। और यदि यह कभी हो भी जाय तो संसार का नाश हो जायगा, सृष्टि ही न रहेगी। सृष्टि का मुख्य लक्षण भेदों का होना ही है। हम रूपवान् वा विग्रहवान् क्यों हैं? इसी भेद के कारण न। अत्यंत साम्यभाव से तो नाश ही हो जायगा। मान लीजिए कि इस कोठरी में गरमी है और वह गरमी कोठरी भर में समान रूप से है, न कहीं कम न कहीं अधिक व्याप्त है। ऐसी गरमी तो किसी काम की न ठहरी। संसार में गति का कारण क्या है? केवल वैषम्यहीन समानता का न होना ही तो? एकाकारता, एकता वा अत्यंत साम्यावस्था तो तभी हो सकती है जब विश्व का संहार हो जाय। अन्यथा ऐसा होना सर्वथा असंभव है। इतना ही नहीं, ऐसा होने में भय भी है। हमें इसकी कभी इच्छा तक न करनी चाहिए कि सब एक से हो जायँ। फिर तो कुछ सोचने की बात ही न रह जायगी। हम सब अजायबघर की मोमियाई बन जायँगे और खड़े खड़े एक दूसरे को टकटकी