पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/१४७

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है कि वह मुझे न मिले; पर मुझे निश्चय है कि वह है। यदि मुझे किसी वस्तु का निश्चय है तो इसी मनुष्यत्व का है जो सब में है। इसी सामान्य सत्ता के सहारे हम आपको स्त्री वा पुरुष के रूप में देखते हैं। यही विश्वव्यापी धर्म है जो सारे धर्मों में ईश्वर के रूप में व्याप्त हो रहा है। यह अब तक हैं और अनंत काल तक बना रहेगा। मैं धागे के समान सारे मनकों में हूँ और मनके यही धर्म वा संप्रदाय हैं। यही सब मनके हैं और भगवान् सूत्ररूप हैं जिनमें वे सब गुथे हुए हैं। भेद केवल इतना ही है कि जनसाधारण को उसका बोध नहीं है।

अनेकता में एकता का होना ही विश्व का धर्म है। हम सब मनुष्य हैं और ऐसा होते हुए भी हम एक दूसरे से पृथक् हैं। मनुष्य होते हुए हम सब एक ही हैं, पर नाम-रूप भेद से मैं और आप सब अलग अलग हैं। पुरुष के रूप में आप स्त्री से पृथक् हैं और मनुष्य के रूप में आप और स्त्री एक ही हैं। मनुष्य के रूप में आप पशु से विलग हैं, पर प्राणी वा जीवधारी के रूप में स्त्री-पुरुष, पशु-पक्षी, कीट-पतंग, वृक्ष- वनस्पति सब एक ही हैं और सत्ता रूप में आप और विश्व एक हैं। वही विश्वव्यापी सत्ता ब्रह्म वा विश्व की एक मात्र सत्ता है। उसी में हम सब एकीभूत हैं। पर इसके साथ ही व्यक्तावस्था में यह भेद सदा रहेगा। हमारे कर्मों में, हमारी शक्तियों में जब वे संसार में व्यक्तावस्था में हैं, वह भेद सदा रहेगा। अतः यह स्पष्ट है कि यदि विश्वव्यापी धर्म का यह