मानते। इसका अर्थ ही उनकी समझ में नहीं आता। यह एक पवित्र पदार्थ का प्रतीक है वा उसके लिये आता है, बस इतना मात्र वे जानना चाहते हैं। अतः कर्मकांड में भी कोई विश्वव्यापी प्रतीक नहीं है जिसे सब लोग मानते और स्वीकार करते हों। फिर विश्वव्यापकता कहाँ रही? फिर विश्व मात्र में एक धर्म का होना कैसे संभव है? पर वह है और अब तक है। अब हम देखते हैं कि वह क्या है।
हम सब विश्वव्यापी भ्रातृत्व की बातें सुनते हैं। समाज एक मात्र इसी का उपदेश करने के लिये बनते हैं। मुझे एक पुरानी कहानी याद आती है। भारतवर्ष में मद्य पीना बड़ा पाप समझा जाता है। दो भाई थे। दोनों ने मिलकर एक बार रात को छिपकर मद्य पीना चाहा। उनका चचा जो बड़ा ही कट्टर हिंदू था, पास की कोठरी में सोता था। इसी भय से पीने के पहले उन लोगों ने परस्पर यह कहा कि भाई, हम बोलें नहीं; नहीं तो चचा जाग जायँगे। जब मद्यपान हुआ, तब भी वे दोनों परस्पर यही कहते रहे―चुप रहो, नहीं तो चचा जाग जायँगे। और यही बात वे एक दूसरे को चुप कराने के लिये बार बार कहते रहे। उनका चिल्लाना बढ़ता गया और उनका चचा जाग उठा और जहाँ वे दोनों थे, आया और सारा भाँड़ा फूट गयो। हम लोग मद्यपों की भाँति विश्वव्यापी भ्रातृभाव का नाम लेकर चिल्ला रहे हैं। “हम सब बराबर हैं, आओ हम लोग एक संप्रदाय खड़ा करें।” ज्यों ही आप संप्र-