लाते हैं। उदाहरण के लिये एक साधारण प्रतीक को ले लीजिए। लिंग का प्रतीक एक स्पष्ट अंग है; पर उसके मुख्य अभिप्राय का बोध अब जाता रहा है और अब वह कर्ता (ईश्वर) का एक प्रतीक मात्र रह गया है। जो लोग इस प्रतीक की उपासना करते हैं, वे उसे लिंग कभी नहीं समझते। उनके लिये वह प्रतीक है और बस इतना ही। पर दूसरी जाति का पुरुष उसे लिंग समझता और उसकी निंदा करता है। पर साथ ही वह स्वयं ऐसा काम करता है जो लिंग-पूजकों को घृणित जान पड़ता है। हम उदाहरण की दो बातें लेते हैं। एक तो लिंग की और दूसरी ईसाइयों के प्रसाद वा सेक्रामेंट (Sacrament) की। ईसाइयों के मत से लिंगपूजा घृणित है और हिंदुओं के विचार से प्रसाद वा सेक्रामेंट घृणित कर्म है। उनका कथन है कि ईसाइयों का प्रसाद-भक्षण पैशाचिक कृत्य है, क्योंकि वे मनुष्य को मारकर उसके सद्गुणों की प्राप्ति के लिये उसका मांस खाते और रक्तपान करते हैं। कोई कोई जंगली जातियाँ अब तक यही करती हैं। यदि कोई वीर पुरुष होता है, तो वे उसे मार डालती हैं और उसका कलेजा खाती हैं। उनकी धारणा है कि इससे उस मनुष्य के साहस और पराक्रम हममें श्रा जायँगे। सर जान लबक सरीखे पक्के ईसाई भी इसे स्वीकार करते हैं और कहते हैं कि ईसाई धर्म के इस विचार का मूल यही जंगलियों का विचार है। इसमें संदेह नहीं कि ईसाई इस विचार को, जो उसके कारण के संबंध में है, नहीं
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