ईसाई कहते हैं कि ऐसा मानना पुराण की मिथ्या बात है; इति- हास की बात वा सत्य नहीं, अंध-विश्वास की बात है। यहू- दियों का विश्वास है कि यदि कोई मंजूषा की आकृति की ऐसी प्रतिमा बनाई जाय जिसके दोनों ओर देवदूत बने हों, तो वह पवित्र से पवित्र स्थान में भी रखी जा सकती है; वही जेहोवा के लिये है। पर यदि किसी सुंदर स्त्री वा पुरुष की आकृति की प्रतिमा है, तो वे उसे त्याज्य बताते हैं और तोड़ डालने को कहते हैं। यही हमारे पुराणों की एकता है। यदि कोई खड़ा होकर यह कहता है कि हमारे धर्माचार्य्य ने अमुक अमुक बातें कीं, तो दूसरे यह कहने को झट उठ पड़ते हैं कि 'यह अंध विश्वास मात्र है'। पर वे यह नहीं सोचते कि जब वे अपने धर्माचार्य्य के संबंध में उससे भी अद्भुत अद्भुत बातों का करना वर्णन करते हैं, तब उन्हें ऐतिहासिक क्यों समझते हैं। इतिहास और पुराण में इन लोगों ने क्या अंतर समझ रखा है? जहाँ तक लोग मुझे मिले हैं, किसी की समझ में आज तक यह बात नहीं आई है। ऐसी कथाएँ चाहे जिस धर्म की हों, सच- मुच कल्पित हैं। शायद ही उनमें कभी दैवयोग से इतिहास की कुछ चाशनी आ गई हो तो आ गई हो।
तदनंतर कर्मकांड पाता है। एक संप्रदाय में एक प्रकार के कर्म होते हैं। वह उन्हें पवित्र समझता है और दूसरों के कर्म को अंध विश्वास बतलाता है। यदि एक संप्रदाय में प्रतीक विशेष की पूजा होती है, तो दूसरे उसे बुरा और जघन्य बत-