है, यह हमारा देशधर्म है, इत्यादि हम कहा करते हैं। धर्म का रखना एक प्रकार की देशभक्ति हो गई है और भक्ति एकदेशी हुना करती है। धर्म में समता का लाना सदा से कठिन काम रहेगा। पर फिर भी हम धर्म की इस समता पर विचार करेंगे।
हम देखते हैं कि सब धर्मों में तीन बातें हैं। यहाँ मेरा अभिप्राय संसार के बड़े बड़े सर्वमान्य धर्मों से है। उनमें सबसे पहले तो दर्शन का अंश है, जिसमें उस धर्म का सारा तात्पर्य्य है; जैसे उसके मूल सिद्धांत, उद्देश और उसकी प्राप्ति के साधन। दूसरा अंश पुराण है। वह स्थूल रूप में दर्शन ही रहता है। उसमें महात्माओं, देवताओं और ऋषियों आदि की कथाएँ होती हैं। उसमें दर्शनों के सूक्ष्म तत्व का स्थूल रूप में देव, ऋषि और महापुरुष आदि की प्रायः कल्पित कथाओं के द्वारा वर्णन होता है। तीसरा अंश कर्मकांड है। यह और स्थूल होता है। इसमें आचार, संस्कार, उपासना की पद्धतियाँ जैसे धूप, दीप, पुष्प, चंदन, मुद्रादि जिनसे देखनेवालों पर प्रभाव पड़ता है, रहा करते हैं। यह सब क्रिया-कलाप की बातें हैं। आपको ज्ञात होगा कि सर्वमान्य धर्मों में यही तीनों अंश वर्तमान हैं। अंतर यही है कि किसी में किसी की प्रधानता है, किसी में किसी की है। अब हम पहले दर्शन के ही अंश पर विचार आरंभ करते हैं। क्या कोई विश्वव्यापी दर्शन है? उत्तर यही है कि अब तक तो नहीं है। प्रत्येक धर्म के सिद्धांत न्यारे न्यारे हैं और वे उन्हीं को सत्य बतलाते हैं। वे न केवल इतना ही कहते हैं,