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(२२) विश्वव्यापी धर्म का आदर्श।
(भिन्न भिन्न विचारों और रीतियों का इसमें कैसे समावेश रहे)

हमारी इंद्रियाँ जहाँ तक पहुँचती हैं, हम अपने मन में जिन बातों को सोच सकते हैं, सर्वत्र हमें दो शक्तियाँ परस्पर विरुद्ध काम करती देख पड़ती हैं। उन्हीं की करतूत हमें संसार के सब कर्मों में दिखाई पड़ती है। सब उन्हीं से उत्पन्न हुए हैं। बाह्य जगत् में परस्पर विरुद्ध शक्तियाँ आकुंचन और संप्रसारण वा ऊर्ध्वगामिनी और अधोगामिनी शक्तियाँ कह- लाती हैं; और आभ्यंतर जगत् में उन्हीं के नाम प्रेम, घृणा, शुभ, अशुभ आदि हैं। हम एक से राग करते हैं, दूसरे से द्वेष करते हैं। कभी एक को हमसे राग होता है, दूसरे को द्वेष होता है। हम देखते हैं कि हमें कभी कभी अपने जीवन में अका- रण किसी से राग उत्पन्न हो जाता है। फिर दूसरे समय दूसरों से द्वेष भी होता है। यही सबकी दशा है। जितना ही जिसको अधिक काम पड़ता है, उतना ही इन शक्तियों का उस पर प्रभाव भी अधिक पड़ता है। मनुष्य के विचार और जीवन की सर्वोच्च भूमि धर्म है; और हम देखते हैं कि धर्म में इन दोनों शक्तियों के कर्म बड़े ही अद्भुत होते हैं। सबसे गाढ़ा प्रेम जिसका बोध कभी मनुष्य को हुआ है, धर्म से उत्पन्न हुआ है। और सबसे घोर पैशाचिक घृणा जिसका अनुभव मनुष्य जाति को कभी हुआ है, धर्म से उत्पन्न हुई है। अति