जिनके विचार हमारे विचारों से विरुद्ध हैं। सब लोगों के विचार हमारे ही से क्यों हों? मुझे तो कोई कारण नहीं देख पड़ता। यदि मैं युक्तिप्रमाण माननेवाला मनुष्य हूँ, तो मुझे प्रसन्न होना चाहिए कि उनके विचार हमारे से नहीं हैं। मैं श्मशानवत् स्थान में नहीं रहना चाहता; मैं तो मनुष्य होकर मनुष्यों के बीच में रहना चाहता हूँ। विचारवान् मनुष्यों में मतभेद अवश्य रहेगा। विचारमत्ता का पहला लक्षण मतभेद ही है। यदि मैं विचारवान् मनुष्य हूँ, तो मैं तो विचारवानों में ही, जहाँ मतभेद है, रहना चाहूँगा।
फिर प्रश्न यह उठता है कि ये सब भेद सत्य कैसे हो सकते हैं? यदि एक बात सत्य है तो जो उसके विरुद्ध है, वह मिथ्या होगी। परस्पर विरुद्ध मत एक ही समय में सत्य कैसे हो सकते हैं? यही प्रश्न है जिसका समाधान करना मुझे अभीष्ट है। पर मैं पहले आपसे यह प्रश्न करूँगा कि क्या संसार के सब धर्म सचमुच परस्पर विरुद्ध हैं? मेरा अभि- प्राय उनके बाहरी रूप से नहीं है, जिसके भीतर बड़े बड़े विचार छिपे हुए हैं। मेरा अभिप्राय मंदिरों से, भाषा से, कर्मकांड से और पुस्तकादि से नहीं है, जिनका काम भिन्न भिन्न मतों में पड़ता है; अपितु मेरा आशय धर्म के भीतरी तत्व से है। प्रत्येक धर्म की आड़ में उसका तत्व है। एक धर्म का वह तत्व दूसरे धर्म के तत्व से विभिन्न हो सकता है, पर क्या वे दोनों परस्पर विरुद्ध हैं? क्या उनसे औरों का खंडन होता है वा