चाहिए, क्योंकि बिना इसके उन्हें ईसाई धर्म की शिक्षा नहीं दी
जा सकती। वे इस समय कैथलिक हैं; पर वह उनको प्रेस-
बिटीरियन बनाना चाहता है; इसी लिये यह अपनी जाति
पर इस रक्तपात का घृणित दोष लादना चाहता है। कितनी
भयानक बात है! और वह मनुष्य इस देश के बड़े उपदेशकों
और बहुश्रुतों में गिना जाता है। संसार की दशा को देखिए
कि ऐसे लोगों को ऐसी उद्धत बातें करते लजा नहीं आती;
और यह भी देखिए कि लोग उसकी बातें सुनकर हर्ष से
तालियाँ बजाते हैं! क्या यही सभ्यता है? यह बाघ, राक्षस
या बनमानुष की रक्तपिपासा है जो अवस्थानुसार नया नाम
धारण करके प्रकट हुई है। यह और हो ही क्या सकती है?
भला सोचिए तो सही कि संसार के लिये यह कितनी
भयानक बात है, कि प्राचीन काल में एक संप्रदाय के लोग
दूसरे संप्रदायवालों को जहाँ तक उनसे बन पड़ता, मारने
काटने का प्रयत्न करते थे। यह घटना पूर्वकाल में हो चुकी
है; इतिहास इसका साक्षी दे रहा है। बाघ सो गया है, पर
मरा नहीं है। अवसर मिलने की देर है। बस अवसर मिला
कि वह कूदा और चीरने फाड़ने लगा। तलवार को जाने
दीजिए और हथियारों की बात छोड़िए। यहाँ सारे हथियारों
से भयानक हथियार उपस्थित है―घृणा, सामाजिक विद्वेष,
सामाजिक बहिष्कार। उस समय इनकी चोट कड़ी ही नहीं
भारी भी होती है, जब इनका प्रहार उन लोगों पर होता है
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